महर्षि पतंजलि द्वारा प्रतिपादित योग दर्शन और अष्टांग योग व्यक्ति के संपूर्ण विकास का पथ प्रशस्त करते हैं। अष्टांग योग लोक तथा परलोक दोनो में समन्वय बनाकर अध्यात्मिक , मानसिक , बौद्धिक , सामाजिक और शारीरिक उन्नति का स्रोत बनते हैं।
पतंजलि योग दर्शन के अष्टांग योग अर्थात आठ अंगों को जोड़ना ही जीवन जीने की सही कला है। यह 8 अंग- यम , नियम , आसन , प्राणायाम , प्रत्याहार , धारणा , ध्यान तथा समाधि है।
यम
यम को सामाजिक , नैतिक , व्यवहारिक अनुशासन से जोड़ा जाता है। यम अर्थात ऐसे संचित कर्म जिन्हें यमराज भी नहीं छीन सकता। अतः यह हमारे जन्म जन्मांतर के कर्मों के रूप में लाभ पहुंचाते हैं। यम वैदिक अष्टांग योग का पहला अंग है, इसलिए इसे धर्म का मूल माना जाता है और एक प्रकार से पहली सीढ़ी। निवृत्ति मूलक अर्थात बुराइयों से अच्छाई की तरफ जाना और अशुभ से शुभ की तरफ बढ़ना। सकारात्मक दृष्टिकोण रखना, सभी जीवो से समभाव रखना, इंद्रियों पर नियंत्रण रखना , लोभ तथा मोह न करना यही यम के आधारभूत सोपान(steps) है।
नियम
नियम शब्द का प्रयोग हम अपने दैनिक जीवन के कार्यों के लिए भी करते हैं। जो अपने लिए नियम नहीं बनाता उसे दूसरों के बनाए नियमों पर चलना पड़ता है। एक प्रसिद्ध कहावत है। महर्षि पतंजलि के अनुसार व्यक्ति के कुछ कर्म ऐसे हैं जिन्हें नित्य करना आवश्यक है ,अतः इन्हें नियमबद्ध तरीके से करना चाहिए। नियम प्रवृत्ति मूलक साधक माने जाते है। सुखमय स्वस्थ तथा सफल गृहस्थ जीवन के लिए इन नियमों का पालन करना चाहिए। महेश्वरी अत्रि के अनुसार पवित्रता , यज्ञ , तप , दान , स्वाध्याय , जननेद्रियों का निग्रह , व्रत , मौन उपवास तथा स्नान यह दस नियम है।
अंततः यही निष्कर्ष निकलता है कि हमारे महान ऋषि-मुनियों ने लगभग 1000 ईसा पूर्व जो नियम बनाए थे, वह आज भी हमारा मार्गदर्शन कर रहे हैं और इस बदले हुए परिवेश में भी उतने ही सार्थक और सफल है।
हृदय से प्रसन्नसा व साधुवाद lहिन्दी भाषा के प्रचार तथा प्रसार
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