विवाह – प्रकार व नियम (शास्त्रोनुसार)

हिंदू मान्यताओं के अनुसार शादी एक धार्मिक संस्कार है। इसे एक पवित्र बंधन माना जाता है। शादी के पश्चात ही व्यक्ति गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता है। मनुस्मृति के अनुसार व्याह कई प्रकार के होते हैं। प्रथम चार प्रकार के गठबंधन उच्च कोटि के और अन्य निम्न कोटि के गठबंधन माने जाते हैं।
विवाह/ शादी
  1. ब्रह्म विवाह– यह विवाह वैदिक रीति और नियम के साथ किया जाता है। यह उत्तम व्याह है। इसमें दोनों पक्षों की सहमति , कन्या की इच्छा के अनुसार परिणय सूत्र निश्चित किया जाता हैं। Arrange marriage इसी तरह की शादी का रूप है।
  2. दैव विवाह– कन्या का दान करना किसी धार्मिक अनुष्ठान या किसी सेवा कार्य के मूल्य के रूप में  हैं। इस प्रकार के पाणिग्रहण को ” दैव विवाह ” कहते हैं।
  3. आर्श विवाह-कन्या पक्ष वालों को गौदान करके (कन्या का मूल्य देकर) कन्या से शादी कर लेना “आर्श विवाह ” कहलाता है।
  4. प्रजापत्य विवाह– पुत्री की सहमति के बिना उसका गठबंधन धनाढ्य परिवार  में कर देना “प्रजापत्य विवाह ” कहलाता है।
  5. गंधर्व विवाह– अभिभावकों की अनुमति के बिना वर और कन्या आपसी सहमति से बिना रीति-रिवाज के  शादी कर ले। ऐसे विवाह को ” गंधर्व विवाह ” कहते हैं।
  6. असुर विवाह– वर पक्ष यदि कन्या को खरीद कर (आर्थिक रूप से) व्याह कर ले तो ऐसी शादी को “असुर विवाह ” कहते हैं।
  7. राक्षस विवाह– कन्या की सहमति के बिना उसका अपहरण करके जबरदस्ती पाणिग्रहण कर लेना “राक्षसी विवाह ” कहलाता है।
  8. पैशाच विवाह– कन्या को मूर्छित (मदहोशी, मानसिक दुर्बलता, गहन निंद्रा आदि) करके उससे शारीरिक संबंध बना लेना और शादी करने के लिए मजबूर करना “पैशाच विवाह ” कहलाता है।

इसके अलावा पाणिग्रहण के कुछ नियम जो सामाजिक रूप से बनाए गए हैं। उनमें  से कुछ प्रमुख नियमों का उल्लेख निम्न है-

  1. अंतर्विवाह– इस में वैवाहिक संबंध समूह के मध्य ही होते हैं। यह समूह एक गोत्र, कुल, अथवा एक जाति या फिर एक ही स्थान पर बसने वालों का हो सकता हैं।
  2.  बर्हिर्विवाह– इस में वैवाहिक संबंध गोत्र, कुल एवं जाति से बाहर के होते हैं।
  3. बहुपत्नी प्रथा– एक पुरुष की अनेक पत्नियां होने की सामाजिक परिपाटी को बहु पत्नी प्रथा कहा जाता था।
  4.  बहुपति प्रथा– एक स्त्री के अनेक पति होने की पद्धति को बहुपति प्रथा कहा जाता था।

पुत्री का पाणिग्रहण पिता के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण धार्मिक कर्तव्य माना जाता था। कन्या और स्त्रियों का जीवन बहुत सावधानी से नियमित किया जाता था जिससे “उचित ” समय पर ” उचित ” व्यक्ति से उनका पाणिग्रहण किया जा सके।

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