योग – आत्म दर्शन

योग – आत्म दर्शन

योगश्चित वृत्तिनिरोधः। 

यह पतंजलि योग दर्शन का पहला सूत्र है। योग चित्तवृत्ति का निरोध है ,यानी हमारे दिल में उठती तरंगों पर अंकुश  योग है।

योग शब्द की उत्पत्ति युज् धातु से हुई है जिसका अर्थ हैं ‘जुड़ना’। इस की परिभाषा के अनुसार आत्मा का परमात्मा से मिलना ही योग है, किंतु यह जितना सरल प्रतीत होता है उतनी ही गौण है। क्या परमात्मा से सिर्फ मृत्यु के बाद ही मिलन संभव हैं ?

यदि हम एक नजरिया यह माने कि हमारे अंदर भी परमात्मा का एक अंश है जिससे हम अनभिज्ञ हैं। पूरे जीवन काल में उस मिलन के लिए प्रयासरत रहते हैं। यह पूरा जीवन इन्हीं प्रयासों में चला जाता है।  हम यह तक नहीं जान पाते कि जिस परमात्मा से हमारा मिलन होना है उसका हमारे भीतर भी अंश है।

योग-आत्म-दर्शन

अहम् ब्रह्मास्मि। हर प्राणी में  ब्रह्म है। कोई उसको जान चुका है तो कोई अनजान है। मूलत: योगा का संबंध केवल आसन से ही जोड़ा जाता हैं, जो कि उसका केवल एक पहलू हैं। यदि हम बात करें योगा की तो यह एक विशाल पेड़ है , जिसके अंदर सबको आकर छाया मिलती है। आसन केवल ‘अष्टांग योग ‘ का एक अंश है। हम सभी का अंतिम उद्देश्य व लक्ष्य उस अदृश्य शक्ति में समा जाना है। यह हमें न केवल शारीरिक अपितु मानसिक , आध्यात्मिक, संवेदनात्मक रूप से सुदृढ़ करता है। यह उस अंतिम उद्देश्य तक पहुंचा कर संतोष करना सिखाता हैं।

अंत में मैं यही कहना चाहूंगी, मेरे लिए योगा कोई क्रिया नहीं अपितु जीवन शैली हैं। जिससे जीवन में हर क्षेत्र में संतुलन की भावना उत्पन्न होती हैं। संभवतः आपको जीवन में योग द्वारा कोई अन्य शुभ फल प्राप्त हो। आवश्यकता है तो  सिर्फ, योग रूपी विशाल पेड़ की छाया में आने की।

धन्यवाद।

रितिका सेठी _/\_

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