सपनों की मधुशाला

सपनों की मधुशाला

यूँ ही चलते हुए एक मधुशाला देखी,
वहाँ जाते हुए भीड़ देखी
मानो जैसे सजा हो कोई रंगीला मेला।
बस कदम खुद ब खुद मधुशाला की ओर बढ़ने लगे,
मानो वहाँ पहुँचा तो एक अलग ही दुनिया से वाकिफ हुआ।

ना कोई दर्द की आहट तक थी,
मानो खुशी की चादर ने दर्द को ढक लिया हो जैसे।
क्या दोस्त क्या दुश्मन, सब एक साथ जीवन के मधु में डूबे हुए हैं,
मानो मेले में बिछड़े दोस्त जो इस मधुशाला में मिले हैं।

मधुशाला के मधु के रस में लोग भूल बैठे अपनी जाति हैं,
मानो सब एक हों, न कोई जाति का भेद, न धर्म का भेद और न ही कोई स्वार्थ।
मधुशाला दुनिया के कायदों को नहीं मानती,
मानो उसके लिए सब एक ही समान हों।

दिल में एक एहसास हुआ, क्यों ये समाज इस मधु रूपी ज्ञान से अनभिज्ञ है,
मानो समाज में मधु नहीं बल्कि विष रूपी पाप का साम्राज्य हो।
निकला जब मैं मधुशाला से,
लौट आया वहाँ जहाँ लोग उलझ चुके हैं समाज के कायदों में,
मानो इस दुनिया में नहीं है कोई ऐसी मधुशाला।

निशांत गुप्ता

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