संतुष्टता और लालसा में अंतर

संतुष्टता और लालसा में अंतर

संतोष और लालसा व्यक्ति की ऐसी दो मनोस्थिति है ,जो उसके उत्थान व पतन दोनों का कारण बनती है। संतोष का अर्थ प्राय: यह नहीं है कि व्यक्ति उन्नति की कोशिश न करें अपितु इसका सही अर्थ है कि एक निश्चित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए यथाशक्ति प्रयास करें और सफल/असफल  होने पर स्थिति अनुकूल स्वीकार करें। स्वीकार करने की भावना मन में संतोष ,संतुष्टता ,आत्म संयम आदि भावनाओं का सृजन करती है।
जहां तक लालसा व लालच की विवेचना है अधिकतर  लालसाएं अपनी नहीं होती। हम उसे अपने सामाजिक परिवेश से उठा लेते हैं ।लालसा कभी न खत्म होने वाली तृष्णा है ।यदि व्यक्ति अपनी एक लालसा पूरी कर लेता है तो वह कोई अन्य करने लगता है। अतः यह एक अंतहीन चक्र  है, जिसे हम 99 का फेरा भी कहते हैं।

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संतोष संबंधित कुछ अनमोल वचन

  1. संतोष प्राप्ति में नहीं बल्कि प्रयास में होता है। पूरा प्रयास पूर्ण विजय है।
  2. सबसे बड़ा धन संतोष पूर्वक जीना है।
  3. एक संतुष्ट मन के बराबर कोई तपस्या नहीं है ,लोभ के जैसी कोई बीमारी नहीं है।
  4. जब आवे संतोष धन सब धन धूलि समान।

लालसा संबंधित विषय में कुछ अनमोल वचन

  1. जो दूसरों के धन, सौंदर्य, बल, सुख ,सौभाग्य व सम्मान से ईर्ष्या या उसकी लालसा करते हैं।वे सदैव दुखी रहते हैं। –  महात्मा विदुर
  2. खुश रहे लेकिन संतुष्ट मत हो।
  3. जिन्हें बहुत कुछ दिया गया है, उन्हें और ज्यादा की चाह है। यही लालसा है।
  4. अंत में – धर्म ,अर्थ ,काम, मोक्ष की लालसा मनुष्यो में जन्मजात होती है और समग्र रूप में इसकी संतुष्टि भारतीय संस्कृति का सार है। – पंडित दीनदयाल उपाध्याय
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