अहम, वहम और रहम तीनों ही मनुष्य की मनोदशा दर्शाते। अहम और वहम जहां मनोरोग हैं वहीं रहम मनोबल है। अहम और वहम विकार हैं जिनका इलाज रहम है। तुलसीदास जी ने तो रहम को धर्म का मूल कहां है – दया (रहम) धर्म का मूल है ,पाप मूल अभिमान।
अहम – अहंकार , मैं पन और अहम वस्तुतः एक ही चीजें हैं। मैं पन या अहंकार में मनुष्य पराई चीज को भी अपनी समझ लेता है।अहंकार स्थूल या सूक्ष्म दोनों ही चीजों पर किया जाता है किंतु दोनों ही प्रकार से किया गया, अज्ञानता की निशानी है।अहम असल में एक बीमारी की तरह है जो व्यक्ति को बुरी तरह से जकड़ लेता है।
अहम के रोग से पीड़ित मनुष्य स्वयं भी कराहता है और दूसरों को भी परेशान करता है।वह प्राय असंतुष्ट ही देखा जाता है।अपने अहम या अभिमान की पूर्ति होते न देख मनुष्य को गुस्सा आ जाता है तथा वह दूसरों का अहित भी करने को उतारू हो जाता है।
वहम – वहम के मामले में व्यक्ति के मन में एक प्रकार का द्वंद या संशय बना ही रहता है ।वह न तो स्वयं को और न ही दूसरों को पूरी तरह समझ पाता है।आत्मविश्वास की कमी से ही वहम की उत्पत्ति होती है।
जब मनुष्य को अपने ऊपर भरोसा नहीं होता तो वह दूसरों पर भी भरोसा नहीं करता ऐसे में वह शक्की और वहमी बन जाता है।यह एक ऐसी बीमारी है जो जीवन को नरक बना सकती है।एकमात्र वहम ही रस्सी को सांप बना सकती है।
रहम – अपने आत्म सम्मान में रहना तथा दूसरों को भी अपने अंदर आश्रय देना – यह दोनों ही बातें रहम भावना की सूचक है। इस अर्थ में रहम अपने आप पर तथा दूसरों पर भी किया जाता है।
रहम भावना शत्रु को भी अपना मित्र बनाती है तथा विश्व कल्याण में सहायक सिद्ध होती है।रहम भाव अपनाकर ही अहम-वहम का उपचार संभव है।रहम मनुष्य का संभावित गुण है। तुलसी दया न छोड़िये, जब लगी घट में प्रान।।