आसक्ति, प्रेम, रति और वासना में अंतर

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।

आसक्ति , प्रेम , रति और वासना में अंतर

महापुरुषों और मनोवैज्ञानिकों द्वारा परिभाषित –

आसक्ति – किसी बात, व्यक्ति ,आदत या भाव पर मंत्र मुग्ध हो जाना और उसके लिए अटूट लगाव व अनुरक्ति रखना आसक्ति कहलाता है। यह सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही प्रकार की होती है यह निर्णय संस्कार और आत्मज्ञान द्वारा होता है।

  1. आसक्ति हमारे चित्त  को विषय में आबद्ध करती है।-रविंद्र नाथ ठाकुर।
  2. आसक्ति भय और चिंता की जड़ है।-स्वामी रामतीर्थ
  3. किसी से हम घॄणा तभी करते हैं ,जब किसी अन्य वस्तु पर हमारी आसक्ति  होती है।
  4. आसक्ति वृत्ति के खिलाफ युद्ध करने से इनकार करना नासमझी है।-महात्मा गांधी
  5. आसक्ति राक्षस को नष्ट कर दिया तो इच्छित वस्तुएं तुम्हारी पूजा करने लगेगी।-स्वामी रामतीर्थ

प्रेम – प्रेम को परिभाषित करना अर्थात सागर को गागर में भरना है। राधा से लेकर मीरा तक प्रेम के अनेक रूप है। प्रेम चतुर मनुष्य के लिए नहीं ,वह तो शिशु से सरल ह्रदयों की वस्तु है। प्रेम की पवित्रता का इतिहास मनुष्य की सभ्यता का इतिहास है उसका जीवन है। यही उसके महान होने का धारावाहिक वर्णन है। यही मानव के सभी भावो में सर्वोत्तम और शक्तिशाली है

  1. प्यार में स्थिरता और दृढ़ता लाने के लिए व्यक्ति के पास विशाल मस्तिष्क भी होना चाहिए।-अज्ञात।
  2. दो प्यार करने वाले दिलों के बीच में स्वर्गीय ज्योति का निवास हैं।-जयशंकर प्रसाद लेखक।
  3. शरीर के चमड़े से प्यार हमें मोची बना देता हैं।-स्वामी रामतीर्थ
  4. प्रेम समस्त दुखों पर माधुर्य की एक परत डाल देता हैं।-भगवती प्रसाद।
  5. प्रेम महान होते हुए भी अंधा है। यही उसका अवगुण हैं।-उमाशंकर

रति – कामदेव की पत्नी और सौंदर्य की साक्षात प्रतिमा।अनुवांशिक वृद्धि, संतति प्राप्त करने के लिए समर्पण भाव से की गई अनिवार्य क्रिया का सकारात्मक रूप रति है। प्राचीन ऋषि, मुनि इसे पवित्र मानते थे यदि यह पवित्र व शुद्ध भाव से की जाए। गृहस्थ जीवन में यह मानसिक , शारीरिक, नैतिक आधार की नीव है। सभी जीव -जंतुओं में प्रेम प्रदर्शन का यही मूलरूप है।

वासना – प्रेम ,स्नेह ,आसक्ति और रति का विकृत रूप वासना है। इस विकार में सिवाय विषाद/frustration के ओर कभी कुछ नहीं मिलता। यह मनुष्य को अपना गुलाम बना देती है। वासना का पागलपन थोड़ी देर रहता है, परंतु मनुष्य को इसका पछतावा बहुत देर तक होता है‌। यह सभी विकारों की प्रधान है और मनुष्य को पतन के गर्त में खींच कर ले जाती है। आचार रहित विचार ,चाहे जितने अच्छे हो सीपी के खोटे मोती की तरह ही समझे जाते हैं।

  1. राग द्वेष नष्ट कर देना चाहिए इसी में वासना का मरण हैं।-श्री ब्रह्मचैतन्य।
  2. वासना ग्रस्त मन पिंजड़े के सिंह के समान चंचल रहता हैं।-योग वशिष्ठ
  3. मन का विकास तभी जा सकता है, जब देहभाव पर अंकुश लगाया जाए।
  4. किन्ही दासों का ऐसा दलन नहीं होता जैसे वासना के दासों का।
  5. विचार शून्यता प्रधान सार्वजनिक आपत्ति है, यही वासना का कारण हैं।

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