महावीर, जैन धर्म के संस्थापक नहीं थे।बल्कि वे इस धर्म के अंतिम तथा सर्वाधिक प्रसिद्ध 24 वें तीर्थकर थे। इनके प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव थे। 23 वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ को छोड़कर पूर्ववर्ती तीर्थकरो की ऐतिहासिकता संदिग्ध है। प्रारंभ में जैन श्रवन संघ एक ही था। दिगंबर और श्वेतांबर में भेद न था।
लगभग 300 ईसापूर्व मगध (उत्तर भारत) में भयानक अकाल की वजह से भद्रबाहु के नेतृत्व में जैनियों के दक्षिण की ओर चले जाने से जैन धर्म में विभाजन होना आरंभ हो गया। जो जैन धर्मावलंबी मगध में रह गए उन्होंने स्थूलभद्र को अपना मुखिया चुन लिया।उत्तर और दक्षिण के जैनियों के बीच कुछ धार्मिक कार्यक्रमों के आधार पर मतभेद उत्पन्न हो गए। जिसके कारण जैन धर्म के अनुयायियों की दो शाखाएं बन गई।
वैचारिक रूप से दोनों संप्रदायों में कोई अंतर नहीं है जैन धर्म का मूल सिद्धांत अहिंसा है। महावीर के अनुसार आत्मा केवल मनुष्य में ही नहीं बल्कि पशुओं , कीड़ों, पौधों ,वायु और अग्नि तक में भी होती है। जैन साधु अब भी नंगे पांव चलते हैं, और मुंह और नाक पर पट्टी बांध कर रखते हैं ताकि कोई जीव जंतु उनके पांव के नीचे आकर या मुंह के अंदर जाकर मर ना जाए। शेष अंतर –
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दिगंबर साधु भिक्षा लेने पूरे दिन में एक बार, एक घर ही जाते हैं।वहां बैठते नहीं है।वही श्वेतांबर साधु अनेक घरो से भिक्षा लेनेके लिए स्वतंत्र है और आसन ग्रहण कर के भोजन करते हैं।
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दिगंबर परंपरा के अनुसार निर्वस्त्र रहकर ही मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है , परंतु श्वेतांबर परंपरा के अनुसार ऐसा नहीं है।
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दिगंबर परंपरा के अनुसार स्त्रियों को मुक्ति नहीं मिलती। परंतु श्वेतांबर परंपरा में स्त्रियों को मुक्ति मिलती है ,उन्हें धर्म में स्थान दिया जाता है।
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दिगंबर परंपरा में महावीर जैन को अविवाहित माना परंतु श्वेतांबर ने विवाहित।
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दिगंबर परंपरा में केवली (ज्ञानी व्यक्ति) को निहार व रोग नहीं होता परंतु श्वेतांबर में यह मान्यता नहीं है।
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आचार्य स्थूलभद्र में पाटलिपुत्र में जैन विद्वानों की एक परिषद बुलाई।जिसमें जैन धर्म के पवित्र साहित्य के 12 अंको को पुन व्यवस्थित किया गया। इन परिवर्तनों को केवल श्वेतांबरों ने ही स्वीकार किया दिगंबरों ने नहीं।
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