कबीर संगति साध की, हरै और की व्याधि। संगति बुरी असाध की, आठौं पहर उपाधि।।
अर्थ- कबीर जी कहते हैं साधु/ सज्जन व्यक्ति की संगति से सभी कष्ट दूर हो जाते हैं। वही दुर्जन व्यक्ति की संगति से आठों पहर हर कष्ट /विपत्ति उत्पन्न होती हैं।
आधि
आधि अर्थात अभाव जन्य रोग। हमारी मनोदशा, मानसिक स्थिति और विचारों की नकारात्मक आवृत्ति , यह रोग दर्शाता है। जीवन की अपूर्ण इच्छाएं, भावनाएं, महत्वकांक्षाएं व्यक्ति की मनोदशा को प्रभावित करते हैं। यदि इनका रूप नकारात्मक हो तो वह एक रोग बन जाते हैं। इसके प्रमुख लक्षण ईर्ष्या , द्वेष , जलन , निराशा , हताशा , तनाव , तुलना , कुंठा , आत्म हीनता , आत्मदया आदि जैसे नकारात्मक विचार होते हैं। जैसा कि यह बताया गया है कि यह अभाव जन्य रोग है और हर व्यक्ति के जीवन में सब कुछ तो नहीं होता अर्थात हर व्यक्ति के जीवन में कुछ ना कुछ अभाव जरूर रहता है, चाहे वह धन , सम्मान , संतान आदि किसी भी रूप में क्यों न हो। सकारात्मक विचारों वाले व्यक्ति उस अभाव को एक चुनौती के रूप में स्वीकार करके उसे एक कल्याणकारी रूप प्रदान कर सकते हैं। जिस प्रकार वृक्ष माता नसालूमरदा थिमक्का (कर्नाटक) ने 400 बरगद के वृक्ष और 8000 अन्य वृक्ष लगाकर पदम श्री पुरस्कार हासिल किया। इनकी उम्र 107 वर्ष की है। संतान ना होने के कारण यह काफी परेशान थी , परंतु इन्होंने उसका एक सकारात्मक हल निकाला और वृक्ष लगाना आरंभ कर दिया। इसी प्रकार नकारात्मक को सकारात्मक से भरा जा सकता हैं।
व्याधि
व्याधि अर्थात शारीरिक कष्ट। शारीरिक कष्ट के 3 मूल कारण होते हैं। वात , कफ और पित्त जिन्हें त्रिदोष कहा जाता हैं। आयुर्वेद में इन तीनों दोषों की पहचान कर रोग के मूल का ही नाश कर दिया जाता था। इनकी पहचान व्यक्ति की प्रकृति , गुण , रस , मनोस्थिति , रुचि , धातु और नाडी़ से की जाती थी। शारीरिक कष्ट से व्यक्ति को तन , मन , धन तीनों की हानि होती है। मृत्यु लोक में कर्म और कर्तव्य करके मुक्ति प्राप्त करने का साधन तन/ शरीर ही है। मानव तन बहुत ही कठिनाई से प्राप्त होता है अतः इसे स्वस्थ रखना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। इसके लिए भोजन , योग का विशेष ध्यान रखना चाहिए। गंभीर रोग होने पर चिकित्सा भी अति आवश्यक है। तन को स्वस्थ रखने के लिए व्यक्ति को मानसिक और भावनात्मक रूप से भी सबल होना बहुत आवश्यक है। ऋणात्मक विचार शरीर को धीरे-धीरे खोखला करते जाते हैं और अनेक रोगों को आमंत्रित कर देते हैं। अतः विचारों की आवर्ती पर भी विशेष ध्यान देना चाहिए। तन , मन से स्वस्थ व्यक्ति ही धन प्राप्त करने में सफल हो सकता है।
उपाधि
उपाधि अर्थात परिस्थिति और प्रकृति जन्य रोग। उपाधि वह समस्याएं हैं जिन्हें हम पूर्व कर्मों का फल समझकर भोगते हैं। ऐसी समस्याएं या विपत्ति जो अत्यंत कष्टकारी होती है। अधिकतर उपाधि समाधान हीन होती है या बहुत अधिक समय लेने पर स्वत: ही समाप्त हो जाती है। उपाधि को हम गम भी कह सकते हैं , जो समय के साथ धीरे-धीरे कम होता जाता है या उसके प्रति स्वीकार्यता आती जाती है। उपाधि जीवन में एक लंबे समय तक रहती हैं , अतः इससे सबसे कष्टकारी माना गया है। प्राचीन कहावत के अनुसार पुत्र न हो तो ,एक दुख है। पुत्र हो पर मृत्यु हो जाए तो, बहुत दुख है। पुत्र हो और बिगड़ जाए तो दुखों का अंत नहीं है। यही उपाधि है। चिंता उपाधि का मूल लक्षण है। कहा भी गया है चिंता चिता समान होती है। प्राकृतिक आपदा या आकस्मिक दुर्घटना भी उपाधि का ही रूप होता है। इसका एकमात्र उपाय आस्था, विश्वास बनाए रखना और सकारात्मक विचार रखना हैं।
गुरु नानक जी ने कहा है “नानक दुखिया सब संसार ” अर्थात इस दुनिया में ऐसा कोई नहीं है जिसे कोई दुख न हो। इसलिए दुख से घबराकर हारना नहीं है , बल्कि जीवन को एक प्रेरणादायक स्रोत बनाकर प्रस्तुत करना है। आधि , व्याधि और उपाधि से मुक्ति अर्थात समाधि की स्थिती।
उत्कृष्ट लेख।
धन्यवाद।
🕉 🙏
धन्यवाद, कृपया ऐसे रुचिकर विषय बताइए जिनमे आप अंतर जानना चाहते हो _/\_
कृपया आधि,व्याधि और उपाधि पर ओर विस्तृत जानकारी उपलब्ध कराने की महति कृपा कर हमें अनुग्रहित करे।आदि भौतिक, आधि दैविक और आध्यात्मिक शब्दों का भी. समावेश करें।ताकि जानकारी ओर परिपूर्ण हो सके।
महाशय
मार्गदर्शन के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद ।आपसे अनुरोध है यदि आप इसमें कुछ संशोधन करना चाहे तो आपका स्वागत है। हम आपके नाम से ही उसे लेख मे प्रस्तुत करेंगे।
Jaishankar prasad ka janm kab hua tha
Bahut hi uttam jaankari jisekafi dino se dhundd raha tha
धन्यवाद _/\_
Utkrisht gyan thank you
धन्यवाद _/\_