आप हैरान पर गौरवान्वित होंगे यह जानकर कि विश्व की प्रथम ब्रांडेड वस्तु – च्वनप्राश हैं ।
आर्युवेद – आयुर्वेद शब्द आयुष+वेद इन दो शब्दों के मेल से बना है। जिसका अर्थ जीवन का वेद (विज्ञान) हैं । जीवन का वैज्ञानिक दृष्टिकोण ही आर्युवेद है। बीमारी का इलाज तो सभी चिकित्सा प्रणाली जैसे एलोपैथी ,होम्योपैथी ,नेचुरोपैथी ,रेकी आदि से हो सकता है पर व्यक्ति बीमार ही ना हो यह चमत्कार सिर्फ और सिर्फ आयुर्वेद चिकित्सा प्रणाली ही कर सकती हैं।
आर्युवेद केवल शारीरिक रोग का निवारण ही नहीं करता अपितु जीवन जीने की कला भी सिखाता है। साथ ही साथ यह व्यक्ति के मानसिक व अध्यात्मिक पक्षों पर भी सकारात्मक प्रभाव डालता है। आर्युवेद विश्व की प्राचीनतम चिकित्सा प्रणाली है। जिसके सिद्धांत शाश्वत , सर्व हिताय हैं। “सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामया: ।” अर्थात सभी सुखी व निरोगी हो। आयुर्वेद, अथर्ववेद का ही उपवेद हैं। आयुर्वेद के प्रमुख आचार्य – अश्वनी कुमार ,धनवंतरी ,ऋषि च्यवन, अगस्त्य, सुश्रुत और चरक थे। इसमे शल्य चिकित्सा , हृदयाघात , प्लास्टिक सर्जरी से लेकर मनोवैज्ञानिक चिकित्सा तक अष्टांग आयुर्वेद थे। ऋषि च्यवन द्वारा बनाया गया च्यवनप्राश तो शारीरिक प्रतिरोधक क्षमता immunity booster के रूप में आज भी प्रयोग में लाया जाता हैं।
त्रिदोष सिद्धांत
आयुर्वेद के अनुसार सभी रोगों का कारण पांच तत्व (जल, पृथ्वी ,आकाश, अग्नि और वायु) जिससे मनुष्य बना है उनके अनुपात में असंतुलन(disbalancing of ratio and proportion) उत्पन्न होना हैं। यदि यह पांच तत्व संतुलित है तो शरीर स्वस्थ है। इनका संतुलन बिगड़ा तो व्यक्ति रोगी हो जाएगा। इन पांचों तत्वों को वात, पित्त और कफ द्वारा दर्शाया जाता हैं। इन दोषों की संख्या तीन है, अतः इन्हें त्रिदोष कहा जाता है। आर्युवेद में इन त्रिदोषों की पहचान कर रोग के मूल का ही नाश कर दिया जाता था। इनकी पहचान व्यक्ति की प्रकृति ,गुण, रस, मनोस्थिति, रुचि , धातु और नाड़ी से की जाती थी।
वात दोष
वायु के समान शरीर में गतिशील रहने वाला वात दोष, वायु और आकाश इन दो तत्वों से मिलकर बना हैं। हमारे शरीर में रक्त संचालन से लेकर बहुत सारी गतिविधियां वायु पर निर्भर होती है। शरीर की हड्डियों और खाली स्थानों पर भी वायु/वात उपस्थित होती है। वात शरीर के प्रमुख कार्य का संचालन करने में सहायक है परंतु इसका असंतुलन भयावह बीमारियों का कारण भी बन सकता हैं। इसमें भयानक सर दर्द ,माइग्रेन, पेट दर्द ,अल्सर, हृदयाघात, शरीर में कंपन, क्रोधी स्वभाव जैसी प्रमुख समस्याएं शामिल है। वात दोष वाले व्यक्तियों को वात प्रकृति वाला कहा जाता हैं।
पित्त दोष
पित्त शब्द संस्कृत के तप शब्द से बना है जिसका अर्थ है गर्मी उत्पन्न करना। पित्त दोष अग्नि और जल इन दो तत्वों को दर्शाता है। पित्त हमारे शरीर के एंजाइम/enzyme और हारमोंस को नियंत्रित करता है। पाचन शक्ति से लेकर मानसिक शक्ति पर नियंत्रण पित्त ही करता है। भोजन को ऊर्जा में परिवर्तित करने का कार्य करता हैं। साथ ही साथ हमारे हार्मोन जो मानसिक क्षमता खुशी, साहस, काम/sex का संचालन भी करता हैं। यदि आप का पाचन तंत्र सुचारू रूप से कार्य नहीं कर रहा अर्थात आपको पित्त दोष है। पित्त के असंतुलन से कब्ज, मूत्र दोष, हड्डियों के जोड़ों में दर्द और हारमोंस संबंधी बीमारियां जैसे थायराइड, अनियमित महामारी आदि होने की संभावना रहती हैं। पित्त दोष वाले व्यक्ति को पित्त प्रकृति वाला कहा जाता हैं।
कफ दोष
कफ दोष, पित्त और वात दोषों पर नियंत्रण रखता हैं। पृथ्वी और जल तत्वों से मिलकर कफ दोष बना है। यह तमोगुण प्रधान होता है आलस , नींद, रोग प्रतिरोधक क्षमता, शरीर में ग्लूकोज की मात्रा का निर्धारण कफ दोष द्वारा किया जाता हैं। यदि शरीर में कफ दोष बढ़ जाए तो अन्य दोष कम हो जाते हैं। इसी प्रकार इसका विपरीत भी होता हैं। अंत में निष्कर्ष यही निकलता है कि यह दोष आपस में भी दूसरे को प्रभावित करते हैं। अतः इनको नियंत्रित करना अति आवश्यक हैं। आयुर्वेद द्वारा हम इन त्रिदोषों को पहचान कर इनका उपचार प्रकृति द्वारा प्राप्त औषधियों से प्राकृतिक रूप से कर सकते हैं। इनका संतुलन हमें स्वस्थ व प्रसन्न चित्त रखेगा।
बहुत ही अच्छी जानकारी दी
कृपया ऐसे रुचिकर विषय बताइए जिनमे आप अंतर जानना चाहते हो _/\_